ऐसी कौन प्रभुकी रीति ?
बिरद हेतु पुनीत परिहरि पाँवरनि पर प्रीति ॥१॥
गई मारन पूतना कुच कालकूट लगाइ ।
मातुकी गति दई ताहि कृपालु जादवराइ ॥२॥
काममोहित गोपिकनिपर कृपा अतुलित कीन्ह ।
जगत - पिता बिरंचि जिन्हके चरनकी रज लीन्ह ॥३॥
नेमतें सिसुपाल दिन प्रति देत गनि गनि गारि ।
कियो लीन सु आपमें हरि राज - सभा मँझारि ॥४॥
ब्याध चित दै चरन मार्यो मूढ़मति मृग जानि ।
सो सदेह स्वलोक पठयो प्रगट करि निज बानि ॥५॥
कौन तिन्हकी कहै जिन्हके सुकृत अरु अघ दोउ ।
प्रगट पातकरुप तुलसी सरन राख्यो सोउ ॥६॥
भावार्थः - ( भगवानके सिवा ) और किस स्वामीकी ऐसी रीति है जो अपने विरदके लिये पवित्र जीवोंको छोड़कर पामरोंपर प्रेम करता हो ? ॥१॥
राक्षसी पूतना स्तनोंमें विष लगाकर उन्हें ( भगवान् कृष्णको ) मारने गयी थी , किन्तु कृपालु यादवेन्द्र श्रीकृष्णने उसे मातकी - सी गति प्रदान की ( उसका उद्धार कर दिया ) ॥२॥
आपने काममोहित गोपियोंपर ऐसी अतुल कृपा की कि जगत्पिता ब्रह्माने भी उनके चरणोंकी धूलि ( अपने मस्तकपर ) चढ़ायी ॥३॥
जो शिशुपाल नियमसे प्रतिदिन गिन - गिनकर गालियाँ देता था उसको आपने राजाओंकी सभामें ( पाण्डवोंके राजसूय - यज्ञमें ) सबके देखते - देखते अपनेमें ही मिला लिया ॥४॥
मूर्ख बहेलियेने तो मृग समझकर आपके चरणमें निशाना लगाकर ( बाण ) मारा , पर उसे भी आपने अपनी दयालुताकी बान प्रकट करके सदेह अपने परमधामको भेज दिया ॥५॥
( इस प्रकारके जीवोंने ) जिन्होंने पुण्य और पाप दोनों ही किये हैं उनके लिये तो क्या कही जाय ? ( क्योंकि उनका तो सदगति पानेका कुछ - न - कुछ अधिकार ही था ) किन्तु उन्होंने तो प्रत्यक्ष पापमूर्ति तुलसीको भी शरणमें रख लिया है ( इसीसे उनकी बान प्रत्यक्ष सिद्ध हो जाती है ) ॥६॥